Indian scientists
चमत्कारिक प्रतिभा के धनी डॉ0 अवुल पकिर जैनुलआब्दीन अब्दुल कलाम (कलाम साहब के अनमोल विचार) भारत के ऐसे पहले वैज्ञानिक हैं, जो देश के राष्ट्रपति (11वें राष्ट्र पति के रूप में) के पद पर भी आसीन हुए। वे देश के ऐसे तीसरे राष्ट्र्पति (अन्य दो राष्ट्र पति हैं सर्वपल्लीन राधाकृष्णन और डॉ0 जा़किर हुसैन) भी हैं, जिन्हें राष्ट्रपति बनने से पूर्व देश के सर्वोच्च सम्मा्न ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। इसके साथ ही साथ वे देश के इकलौते राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने आजन्म अविवाहित रहकर देश सेवा का व्रत लिया है।
कलाम का जन्म:
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* मिसाइलमैन ए.पी.जे. अब्दुल कलाम * |
अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर 1931 को तामिलनाडु के रामेश्वरम कस्बे के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ। उनके पिता जैनुल आब्दीन नाविक थे। वे पाँच वख्त के नमाजी थे और दूसरों की मदद के लिए सदैव तत्पर रहते थे। कलाम कीमाता का नाम आशियम्माथा। वे एक धर्मपरायण और दयालु महिला थीं। सात भाई-बहनों वाले पविवार में कलाम सबसे छोटे थे, इसलिए उन्हें अपने माता-पिता का विशेष दुलार मिला।
पाँच वर्ष की अवस्था में रामेश्वमरम के प्राथमिक स्कूल में कलाम की शिक्षा का प्रारम्भ हुआ। उनकी प्रतिभा को देखकर उनके शिक्षक बहुत प्रभावित हुए और उनपर विशेष स्नेह रखने लगे। एक बार बुखार आ जाने के कारण कलाम स्कूल नहीं जा सके। यह देखकर उनके शिक्षक मुत्थुश जी काफी चिंतित हो गये और वे स्कूल समाप्त होने के बाद उनके घर जा पहुँचे। उन्होंने कलाम के स्कूल न जाने का कारण पूछा और कहा कि यदि उन्हें किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता हो, तो वे नि:संकोच कह सकते हैं।
कलाम के बचपन के दिन:
कलाम का बचपन बड़ा संघर्ष पूर्ण रहा। वे प्रतिदिन सुबह चार बजे उठ कर गणित का ट्यूशन पढ़ने जाया करते थे। वहाँ से 5 बजे लौटने के बाद वे अपने पिता के साथ नमाज पढ़ते, फिर घर से तीन किलोमीटर दूर स्थित धनुषकोड़ी रेलवे स्टेशन से अखबार लाते और पैदल घूम-घूम कर बेचते। 8 बजे तक वे अखबार बेच कर घर लौट आते। उसके बाद तैयार होकर वे स्कूल चले जाते। स्कूल से लौटने के बाद शाम को वे अखबार के पैसों की वसूली के लिए निकल जाते।
कलाम की लगन और मेहनत के कारण उनकी माँ खाने-पीने के मामले में उनका विशेष ध्यान रखती थीं। दक्षिण में चावल की पैदावार अधिक होने के कारण वहाँ रोटियाँ कम खाई जाती हैं। लेकिन इसके बावजूद कलाम को रोटियों से विशेष लगाव था। इसलिए उनकी माँ उन्हें प्रतिदिनखाने में दो रोटियाँ अवश्य दिया करती थीं। एक बार उनके घर में खाने में गिनी-चुनीं रोटियाँ ही थीं। यह देखकर माँ ने अपने हिस्से की रोटी कलाम को दे दी। उनके बड़े भाई ने कलाम को धीरे से यह बात बता दी। इससे कलाम अभिभूत हो उठे और दौड़ कर माँ से लिपट गये।
प्राइमरी स्कूल के बाद कलाम ने श्वार्ट्ज हाईस्कूल, रामनाथपुरम में प्रवेश लिया। वहाँ की शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने 1950 में सेंट जोसेफ कॉलेज, त्रिची में प्रवेश लिया। वहाँ से उन्होंने भौतिकी और गणित विषयों के साथ बी.एस-सी. की डिग्री प्राप्त की। अपने अध्यापकों की सलाह पर उन्होंने स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए मद्रास इंस्टीयट्यूट ऑफ टेक्ना्लॉजी (एम.आई.टी.), चेन्नई का रूख किया। वहाँ पर उन्होंने अपने सपनों को आकार देने के लिए एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग का चयन किया।
कलाम के जीवन का स्वर्णिम सफर:
कलाम की हार्दिक इच्छा थी कि वे वायु सेना में भर्ती हों तथा देश की सेवा करें। किन्तु इस इच्छा के पूरी न हो पाने पर उन्होंने बे-मन से रक्षा मंत्रालय के तकनीकी विकास एवं उत्पाद DTD & P (Air) का चुनाव किया। वहाँ पर उन्होंने 1958 में तकनीकी केन्द्र (सिविल विमानन) में वरिष्ठ वैज्ञानिक सहायक का कार्यभार संभाला। उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर वहाँ पहले ही साल में एक पराध्वनिक लक्ष्यभेदी विमान की डिजाइन तैयार करके अपने स्वर्णिम सफर की शुरूआत की।
डॉ0 कलाम के जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ तब आया, जब वे 1962 में 'भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन' (Indian Space Research Organisation-ISRO) से जुड़े। यहाँ पर उन्होंने विभिन्न पदों पर कार्य किया। उन्होंने अपने निर्देशन में उन्न(त संयोजित पदार्थों का विकास आरम्भ किया। उन्होंने त्रिवेंद्रम में स्पेस साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी सेंटर (एस.एस.टी.सी.) में ‘फाइबर रिइनफोर्स्ड प्लास्टिक’ डिवीजन (Fibre Reinforced Plastics -FRP) की स्थापना की। इसके साथ ही साथ उन्होंने यहाँ पर आम आदमी से लेकर सेना की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए अनेक महत्वपूर्ण परियोजनाओं की शुरूआत की।
उन्हीं दिनों इसरो में स्वदेशी क्षमता विकसित करने के उद्देश्य से ‘उपग्रह प्रक्षेपण यान कार्यक्रम’ (Satellite Launching Vehicle-3) की शुरूआत हुई। कलाम की योग्यताओं को दृष्टिगत रखते हुए उन्हें इस योजना का प्रोजेक्ट डायरेक्टर नियुक्त किया गया। इस योजना का मुख्य उद्देश्य था उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थायपित करने के लिए एक भरोसेमंद प्रणाली का विकास एवं संचालन। कलाम ने अपनी अद्भुत प्रतिभा के बल पर इस योजना को भलीभाँति अंजाम तक पहुँचाया तथा जुलाई 1980 में ‘रोहिणी’ उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा के निकट स्थापित करके भारत को ‘अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष क्लब’ के सदस्य के रूप में स्थापित कर दिया।
डॉ0 कलाम ने भारत को रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से रक्षामंत्री के तत्कालीन वैज्ञानिक सलाहकार डॉ0 वी.एस. अरूणाचलम के मार्गदर्शन में ‘इंटीग्रेटेड गाइडेड मिसाइल डेवलपमेंट प्रोग्राम’ (Integrated Guided Missile Development Programme -IGMDP) की शुरूआत की। इस योजना के अंतर्गत ‘त्रिशूल’ (नीची उड़ान भरने वाले हेलाकॉप्ट रों, विमानों तथा विमानभेदी मिसाइलों को निशाना बनाने में सक्षम), ‘पृथ्वी’ (जमीन से जमीन पर मार करने वाली, 150 किमी0 तक अचूक निशाना लगाने वाली हल्कीं मिसाइल),‘आकाश’ (15 सेकंड में 25 किमी तक जमीन से हवा में मार करने वाली यह सुपरसोनिक मिसाइल एक साथ चार लक्ष्यों पर वार करने में सक्षम), ‘नाग’ (हवा से जमीन पर अचूक मार करने वाली टैंक भेदी मिसाइल), ‘अग्नि’ (बेहद उच्च तापमान पर भी ‘कूल’ रहने वाली 5000 किमी0 तक मार करने वाली मिसाइल) एवं ‘ब्रह्मोस’ (रूस से साथ संयुक्त् रूप से विकसित मिसाइल, ध्व़नि से भी तेज चलने तथा धरती, आसमान और समुद्र में मार करने में सक्षम) मिसाइलें विकसित हुईं।
इन मिसाइलों के सफल प्रेक्षण ने भारत को उन देशों की कतार में ला खड़ा किया, जो उन्नत प्रौद्योगिकी व शस्त्र प्रणाली से सम्पन्न हैं। रक्षा क्षेत्र में विकास की यह गति इसी प्रकार बनी रहे, इसके लिए डॉ0 कलाम ने डिपार्टमेन्ट ऑफ डिफेंस रिसर्च एण्डर डेवलपमेन्टं ऑर्गेनाइजेशन अर्थात डी.आर.डी.ओ. (Defence Research and Development Organisation -DRDO) का विस्तार करते हुए आर.सी.आई. नामक एक उन्नत अनुसंधान केन्द्र की स्थापना भी की।
डॉ0 कलाम ने जुलाई 1992 से दिसम्बर 1999 तक रक्षा मंत्री के विज्ञान सलाहकार तथा डी.आर.डी.ओ. के सचिव के रूप में अपनी सेवाएँ प्रदान कीं। उन्होंने भारत को ‘सुपर पॉवर’ बनाने के लिए 11 मई और 13 मई 1998 को सफल परमाणु परीक्षण किया। इस प्रकार भारत ने परमाणु हथियार के निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण सफलता अर्जित की।
डॉ0 कलाम नवम्बर 1999 में भारत सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार रहे। इस दौरान उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्रदान किया गया। उन्होंने भारत के विकास स्तर को विज्ञान के क्षेत्र में अत्याधुनिक करने के लिए एक विशिष्ट सोच प्रदान की तथा अनेक वैज्ञानिक प्रणालियों तथा रणनीतियों को कुशलतापूर्वक सम्पन्न कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नवम्बर 2001 में प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार का पद छोड़ने के बाद उन्होंने अन्ना विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में अपनी सेवाएँ प्रदान कीं। उन्होंने अपनी सोच को अमल में लाने के लिए इस देश के बच्चों और युवाओं को जागरूक करने का बीड़ा लिया। इस हेतु उन्होंने निश्चय किया कि वे एक लाख विद्यार्थियों से मिलेंगे और उन्हें देश सेवा के लिए प्रेरित करने का कार्य करेंगे।
डॉ0 कलाम 25 जुलाई 2002 को भारत के ग्यारहवें राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित हुए। वे 25 जुलाई 2007 तक इस पद पर रहे। वह अपने देश भारत को एक विकसित एवं महाशक्तिशाली राष्ट्र के रूप में देखना चाहते हैं। उनके पास देश को इस स्थान तक ले जाने के लिए एक स्पष्ट और प्रभावी कार्य योजना है। उनकी पुस्तक 'इण्डिया 2020' में उनका देश के विकास का समग्र दृष्टिकोण देखा जा सकता है। वे अपनी इस संकल्पना को उद्घाटित करते हुए कहते हैं कि इसके लिए भारत को कृषि एवं खाद्य प्रसंस्ककरण, ऊर्जा, शिक्षा व स्वास्थ्य, सूचना प्रौद्योगिकी, परमाणु, अंतरिक्ष और रक्षा प्रौद्योगिकी के विकास पर ध्यान देना होगा।
कलाम की पुस्तकें:
डॉ0 अब्दुल कलाम भारतीय इतिहास के ऐसे पुरूष हैं, जिनसे लाखों लोग प्रेरणा ग्रहण करते हैं। अरूण तिवारी लिखित उनकी जीवनी 'विंग्स ऑफ़ फायर' (Wings of Fire) भारतीय युवाओं और बच्चों के बीच बेहद लोकप्रिय है। उनकी लिखी पुस्तकों में 'गाइडिंग सोल्स: डायलॉग्स ऑन द पर्पज ऑफ़ लाइफ' (Guiding Souls Dialogues on the Purpose of life) एक गम्भीर कृति है, जिसके सह लेखक अरूण के. तिवारी हैं। इसमें उन्होंने अपने आत्मिक विचारों को प्रकट किया है।
इनके अतिरिक्त उनकी अन्य चर्चित पुस्तकें हैं- ‘इग्नाइटेड माइंडस: अनलीशिंग दा पॉवर विदीन इंडिया’ (Ignited Minds:Unleashing The Power Within India), ‘एनविजनिंग अन एमपावर्ड नेशन: टेक्नोलॉजी फॉर सोसायटल ट्रांसफारमेशन’ (Envisioning an Empowered Nation: Technology for Societal Transformation),‘डेवलपमेंट्स इन फ्ल्यूड मैकेनिक्सि एण्ड स्पेस टेक्नालॉजी’ (Developments in Fluid Mechanics and Space Technology), सह लेखक- आर. नरसिम्हा, ‘2020: ए विज़न फॉर दा न्यू मिलेनियम’ (2020- A Vision for the New Millennium) सह लेखक- वाई.एस. राजन, ‘इनविज़निंग ऐन इम्पॉएवर्ड नेशन: टेक्नोमलॅजी फॉर सोसाइटल ट्राँसफॉरमेशन’ (Envisioning an Empowered Nation: Technology for Societal Transformation) सह लेखक- ए. सिवाथनु पिल्ललई।
डॉ0 कलाम ने तमिल भाषा में कविताएँ भी लिखी हैं, जो अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उनकी कविताओं का एक संग्रह ‘दा लाइफ ट्री’ (The Life Tree) के नाम से अंग्रेजी में भी प्रकाशित हुआ है।
कलाम को मिलने वाले पुरस्कार/सम्मान:
डॉ0 कलाम की विद्वता एवं योग्य ता को दृष्टिगत रखते हुए सम्मान स्वरूप उन्हें अन्ना यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी, कल्याणी विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, मैसूर विश्वविद्यालय, रूड़की विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, मद्रास विश्वविद्यालय, आंध्र विश्वविद्यालय, भारतीदासन छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय, तेजपुर विश्वविद्यालय, कामराज मदुरै विश्वविद्यालय, राजीव गाँधी प्रौद्यौगिकी विश्वविद्यालय, आई.आई.टी. दिल्ली, आई.आई.टी; मुम्बई, आई.आई.टी. कानपुर, बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलाजी, इंडियन स्कूल ऑफ साइंस, सयाजीराव यूनिवर्सिटी औफ बड़ौदा, मनीपाल एकेडमी ऑफ हॉयर एजुकेशन, विश्वेश्वरैया टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी ने अलग-अलग ‘डॉक्टर ऑफ साइंस’ की मानद उपाधियाँ प्रदान की।
इसके अतिरिक्त् जवाहरलाल नेहरू टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी, हैदराबाद ने उन्हें ‘पी-एच0डी0’ (डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी) तथा विश्वभारती शान्ति निकेतन और डॉ0 बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, औरंगाबाद ने उन्हें ‘डी0लिट0’ (डॉक्टर ऑफ लिटरेचर) की मानद उपाधियाँ प्रदान कीं।
इनके साथ ही साथ वे इण्डियन नेशनल एकेडमी ऑफ इंजीनियरिंग, इण्डियन एकेडमी ऑफ साइंसेज, बंगलुरू, नेशनल एकेडमी ऑफ मेडिकल साइंसेज, नई दिल्ली के सम्मानित सदस्य, एरोनॉटिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया, इंस्टीट्यूशन ऑफ इलेक्ट्रानिक्स एण्ड् टेलीकम्यूनिकेशन इंजीनियर्स के मानद सदस्य, इजीनियरिंग स्टॉफ कॉलेज ऑफ इण्डिया के प्रोफेसर तथा इसरो केविशेष प्रोफेसर हैं।
डॉ0 कलाम की जीवन गाथा किसी रोचक उपन्यास के महानायक की तरह रही है। उनके द्वारा किये गये विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विकास के कारण उन्हें विभिन्न संस्थाओं ने अनेकानेक पुरस्कारों/ सम्मानों से नवाजा है। उनको मिले पुरस्कार/ सम्मान निम्नानुसार हैं:
नेशनल डिजाइन एवार्ड-1980 (इंस्टीटयूशन ऑफ इंजीनियर्स, भारत),
डॉ0 बिरेन रॉय स्पे्स अवार्ड-1986 (एरोनॉटिकल सोसाइटी ऑफ इण्डिया),
ओम प्रकाश भसीन पुरस्कायर,
राष्ट्रीय नेहरू पुरस्कार-1990 (मध्य प्रदेश सरकार),
आर्यभट्ट पुरस्कार-1994 (एस्ट्रोपनॉमिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया),
प्रो. वाई. नयूडम्मा (मेमोरियल गोल्ड मेडल-1996 (आंध्र प्रदेश एकेडमी ऑफ साइंसेज),
जी.एम. मोदी पुरस्काफर-1996,
एच.के. फिरोदिया पुरस्कार-1996, वीर सावरकर पुरस्कार-1998 आदि।
उन्हें राष्ट्रीय एकता के लिए इन्दिरा गाँधी पुरस्कार (1997) भी प्रदान किया गया। इसके अलावा भारत सरकार ने उन्हें क्रमश: पद्म भूषण (1981), पद्म विभूषण (1990) एवं ‘भारत रत्न’सम्मान (1997) से भी विभूषित किया गया।
सादा जीवन जीवन जीने वाले तथा उच्च विचार धारण करने वाले डॉ कलाम ने 27 जूलाइ को अ आख़िरी सांस ली। वे अपनी उन्नत प्रतिभा के कारण सभी धर्म, जाति एवं सम्प्रदायों की नजर में महान आदर्श के रूप में स्वीकार्य रहे हैं। भारत की वर्तमान पीढ़ी ही नहीं अपितु आने वाली अनेक नस्लें उनके महान व्यक्तित्व से प्रेरणा ग्रहण करती रहेंगी।
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आर्यभट की गिनती भारत के महानतम खगोल वैज्ञानिकों में की जाती है। उन्होंने उस वक्त ब्रह्माण्ड के रहस्यों को दुनिया के सामने रखा, जब शेष संसार ठीक से गिनती गिनना भी नहीं सीख पाया था। यही कारण है कि जब भारत सरकार ने 19 अप्रैल 1975 को अपना पहला कृत्रिम उपग्रह छोड़ा, तो उसका नाम ‘आर्यभट’ रखा।
कुछ लोग आर्यभट को ‘आर्यभट्ट’ भी लिखते हैं, किन्तु यह गलत है। उनका वास्तविक नाम ‘आर्यभट’ ही है। आर्यभट को ‘आर्यभट्ट’ लिखने के पीछे लोगों की धारणा यह है कि ब्राह्मण होने के कारण वे ‘भट्ट’ होने चाहिए। किन्तु उन्होंने तथा उनके पूर्ववर्ती भारतीय वैज्ञानिकों ने सभी जगह उनका नाम आर्यभट ही लिखा है। ‘भट’ शब्द का अर्थ होता है ‘योद्धा’। वास्तव में उन्होंने अपने समय में पुरातनपंथी धारणाओं से एक योद्धा की तरह ही लोहा लिया था
आर्यभट का जन्मः
कुछ विद्वानों का मत है कि आर्यभट का जन्म कुसुमपुर में हुआ। कुसुमपुर को पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) का एक उपनगर माना जाता है। जबकि कुछ विद्वान पाटलिपुत्र को ही कुसुमपुर के रूप में मानते हैं। इस भ्रम का कारण यह है कि आर्यभट ने अपनी पुस्तक में अपने बारे में कोई जानकारी नहीं दी है। उन्होंने लिखा है, ‘कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुके हैं और मेरी आयु 23 वर्ष है।’ भारतीय काल गणना के अनुसार कलियुग का आरंभ ईसा पूर्व 3101 से माना जाता है। इस तरह से आर्यभटीय का रचना काल 499 ईस्वी ठहरता है। इस प्रकार हमें पता चलता है कि आर्यभट का जन्म 476 में हुआ था।
कुछ विद्वानो का मत है कि आर्यभट का जन्म नर्मदा और गोदावरी के बीच के किसी इलाके में हुआ था, जिसे संस्कृत साहित्य मे ‘अश्मकदेश’ के नाम से सम्बोधित किया गया है। आर्यभट के ग्रंथों को ‘अश्मक स्फुटतंत्रा’ भी कहा गया है। बौद्ध मत के अनुसार अश्मक अथवा अस्सक दक्षिणपथ में स्थित था। आधुनिक विद्वानों ने आर्यभट्ट को चाम्रवत्तम, केरल के निवासी के रूप में मान्यता दी है। इनके अनुसार अस्मका एक जैन प्रदेश था, जो श्रावान्बेल्गोला के चारों ओर फैला था। चाम्रवत्तम नामक स्थान इस जैन बस्ती का ही हिस्सा था।
ज्यादातर विद्वान आर्यभट का जन्म स्थान केरल मानते हैं। यह बात इसलिए ज्यादा प्रामाणिक लगती है क्योंकि आर्यभट द्वारा रचित ग्रंथ ‘आर्यभटीय’ के अधिकाँश भाष्य दक्षिण भारत और विशेषकर केरल में ही रचे गये। आर्यभटीय की मलयालम लिपि में लिखी हुई हस्तलिखित प्रतियाँ भी इस प्रदेश में प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त आर्यभट की विचारधारा के अधिकतर खगोल विज्ञानी भी दक्षिण भारत में ही पाए गये हैं। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आर्यभट का जन्म केरल में ही हुआ था।
इस बात के काफी प्रमाण मिलते हैं कि आर्यभट उच्च शिक्षा के लिये कुसुमपुर गये और वहाँ पर काफी समय बिताया। भास्कर प्रथम (629 ई.) ने कुसुमपुरा की पहचान पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) के रूप में की है। उस समय इसके राज्य का नाम मगध था और इसकी राजधानी थी पाटलिपुत्र। उस समय पाटलिपुत्र में नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था। यह अध्ययन का एक विश्वविख्यात केन्द्र था। आर्यभट ने इस विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की और यहीं पर आर्यभटीय की रचना की, जो कालान्तर में बहुत प्रसिद्ध हुई।
आर्यभट की कृतियाँ:
ऐसा माना जाता है कि आर्यभट ने संस्कृत भाषा में तीन ग्रंथों की रचना की। इनके नाम हैं- दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र। कुछ विद्वान इनके ग्रंथों की संख्या 4 बताते हैं। उनके अनुसार उन्होंने ‘आर्यभट सिद्धाँत’ नामक एक अन्य ग्रंथ की भी रचना की थी। वर्तमान में इस ग्रंथ के केवल 34 श्लोक ही उपलब्ध हैं। आर्यभट के मुख्य ग्रंथ का नाम ‘आर्यभटीय’ (कुछ लोग इसे ‘आर्यभटीयम’ भी कहते हैं) है। यह ग्रंथ ज्योतिष पर केन्द्रित है। इसमें वर्गमूल, घनमूल, सामानान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही साथ इसमें खगोल-विज्ञान के महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का भी वर्णन किया गया है।
आर्यभटीय का संगठन:
आर्यभटीय प्राचीन भारत की एक महत्वपूर्ण संरक्षित कृति है। आर्यभट ने इसे पद्यबद्ध संस्कृत के श्लोकों के रूप में लिखा है। संस्कृत भाषा में रचित इस पुस्तक में गणित एवं खगोल विज्ञान से सम्बंधित क्रान्तिकारी सूत्र दिये। पुस्तक में कुल 121 श्लोक या बंध हैं। इनको चार पाद (खण्डों) में बाँटा गया है। इन खण्डों के नाम हैं: गीतिकापाद, गणितपाद, कालक्रियापाद एवं गोलपाद।
1. गीतिकापाद: आर्यभटीय के चारों खंडों में यह सबसे छोटा भाग है। इसमें कुल 13 श्लोक हैं। इस खण्ड का पहला श्लोक मंगलाचरण है। यह (तथा इस खण्ड के 9 अन्य श्लोक) गीतिका छंद में है। इसीलिए इस खण्ड को गीतिकापाद कहा गया है। इस खण्ड में ज्योतिष के महत्वपूर्ण सिद्धाँतों की जानकारी दी गयी है। इस खण्ड में संस्कृत अक्षरों के द्वारा संख्याएँ लिखने की एक ‘अक्षराँक पद्धति’ के बारे में भी जानकारी दी गयी है।
अक्षराँक पद्धति अक्षरों के द्वारा बड़ी संख्याओं को लिखने की एक असान तकनीक है। इस पद्धति में आर्यभट ने अ से लेकर ओ तक के अक्षरों को 1 से लेकर 1,00,00,00,00,00,00,00 तक शतगुणोत्तर मान, क से म तक के सभी अक्षरों को 1 से लेकर 25 संख्याओं के मान तथा य से लेकर ह तक के व्यंजनों को 30, 40, 50 के क्रम में 100 तक के मान दिये। इस प्रकार उन्होंने छोटे शब्दों के द्वारा बड़ी संख्याओं को लिखने का एक आसान तरीका विकसित किया।
2. गणितपाद: इस खण्ड में गणित की चर्चा की गयी है। इसमें कुल 33 श्लोक हैं। यह खण्ड अंकगणित, बीजगणित एवं रेखागणित से सम्बंधित है, जिसके अन्तर्गत वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, त्रिभुज का क्षेत्रफल, वृत्त का क्षेत्रफल, विषम चतुर्भुज का क्षेत्रफल, प्रिज्म का आयतन, गोले का आयतन, वृत्त की परिधि, एक समकोण त्रिभुज का बाहु, कोटि आदि की चर्चा की गयी है।
3. कालक्रियापाद: कालक्रियापाद का अर्थ है काल गणना। इस खण्ड में 25 श्लोक हैं। यह खण्ड खगोल विज्ञान पर केन्द्रित है। इसमें काल एवं वृत्त का विभाजन, सौर वर्ष, चंद्र मास, नक्षत्र दिवस, अंतर्वेशी मास, ग्रहीय प्रणालियाँ एवं गतियों का वर्णन है।
4. गोलपाद: यह आर्यभटीय का सबसे वृहद एवं महत्वपूर्ण खण्ड है। इस खण्ड में कुल 50 श्लोक हैं। इस खण्ड के अन्तर्गत एक खगोलीय गोले में ग्रहीय गतियों के निरूपण की विधि समझाई गयी है। आर्यभट की खगोल विज्ञान सम्बंधी सभी प्रमुख धारणाओं का वर्णन भी इसी खण्ड में मिलता है।
आर्यभट जोर देकर कहते हैं कि पृथ्वी ब्रह्माँड का केंद्र है और अपने अक्ष पर घूर्णन करती है। वस्तुतः आर्यभट पहले भारतीय खगोल विज्ञानी थे जिन्होंने स्थिर तारों की दैनिक आभासी गति की व्याख्या करने के लिए पृथ्वी की घूर्णी गति का विचार सामने रखा। परंतु उनके इस विचार को न तो उनके समकालीनों ने मान्यता प्रदान की न ही उनके बाद के खगोल विज्ञानियों ने। यह अनपेक्षित भी नहीं था, क्योंकि उन दिनों आम मान्यता यह थी कि पृथ्वी ब्रह्माँड के केंद्र में है और यह स्थिर भी रहती है।
आर्यभट एवं गणितीय सिद्धाँत:
आर्यभट ने अपने ग्रन्थ ‘आर्यभटीय’ में बहुत सी गणितीय अवधारणाएँ प्रस्तुत की हैं, जिनमें पाई का मान प्रमुख है। हम जानते हैं कि किसी वृत्त की त्रिज्या और परिधि के बीच में एक खास सम्बंध होता है। यदि वृत्त के व्यास की लम्बाई को 22/7 अर्थात 3.1416 से गुणा किया जाए, तो उस वृत्त की परिधि की लम्बाई पता चल जाती है। इस बात को आर्यभट ने आज से डेढ़ हजार साल पहले बता दिया था:
चतुर्-अधिकम् शतम् अष्ट-गुणम् द्वाषष्टिस् तथा सहस्राणाम्।
अयुत-द्वय-विष्कम्भस्य आसन्नस् वृत्त-परिणाहस्।।
100 में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर 62000 जोड़ें। इस नियम से 20000 परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है। इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात (4+100)×8+62000)/20000 = 3.1416 होता है, जोकि पाँच अंकों तक शुद्ध मान है। जबकि π = 3.14159265 (8 अंकों तक शुद्ध मान) होता है।
आर्यभट से पूर्व के गणितज्ञों को पाई का ज्ञान नहीं था। इससे यह स्पष्ट है आर्यभट ने स्वयं इस अनुपात को खोजा। आर्यभट्ट ने आसन्न (निकट पहुंचना), पिछले शब्द के ठीक पहले आने वाला शब्द, की व्याख्या करते हुए लिखा है कि यह न केवल एक सन्निकटन है, वरन यह अतुलनीय(या इर्रेशनल) है। बाद में इस बात को लैम्बर्ट ने 1761 में सिद्ध किया।
आर्यभट त्रिकोणमिति के सिद्धाँतों के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। आर्यभट ने त्रिकोणमिति में एक नई पद्धति जिसे ‘ज्या’ अथवा ‘भुजज्या’ कहा जाता है, का आविष्कार किया। यह सिद्धाँत अरबों के द्वारा यूरोप तक पहुँचा और ‘साइन’ (sine) के नाम से प्रचलित हुआ। आर्यभट ने अपने ग्रन्थ में sine को अर्ध्-ज्या कहा है, जो बाद में ज्या (jya) के नाम से प्रचलित हुआ। आर्यभटीय का अरबी में अनुवाद करते समय अनुवादकर्ताओं ने ‘ज्या’ को ‘जिबा’ (jiba) लिखा। धीरे-धीरे यह जिबा से ‘जब’ में परिवर्तित हो गया। जब अरबी के ग्रन्थों का लैटिन में अनुवाद हुआ तो उन्होंने इसे गलती से ‘जेब’ पढ़ा। जेब का अर्थ होता है ‘खीसा’ या ‘छाती’। इसीलिए लैटिन में इस शब्द के लिए ‘सिनुस्’ (sinus) का प्रयोग हुआ, जिसका अर्थ भी छाती था। इस सुनेस् से ही अंग्रेजी का शब्द ‘साइन’ (sin) बना। इसके अतिरिक्त आर्यभट ने बीजगणित तथा अंक गणित के बहुत से महत्वपूर्ण सूत्र दिये, जो गणित की प्रारम्भिक एवं उच्च कक्षाओं में पढ़ाए जाते हैं।
आर्यभट एवं खगोल विज्ञान:
आर्यभट एक विलक्षण वैज्ञानिक थे। उन्होंने बिना दूरबीन आदि के आकाश का अध्ययन करके खगोल विज्ञान के ऐसे महत्वपूर्ण सूत्र बताए, जिसे बाकी संसार के वैज्ञानिक शताब्दियों बाद समझ पाए। उनके खगोल सिद्धान्त को औदायक सिद्धान्त कहा गया है। इस सिद्धाँत में उन्होंने दिनों को, लंका के नीचे, भूमध्य रेखा के पास, उनके उदय के अनुसार लिया है। हालाँकि उनके कुछ कार्यों मे प्रदर्शित एक दूसरा सिद्धान्त, अर्द्धरात्रिक भी प्रस्तुत किया है। उन्होंने अपने ग्रन्थ में खगोल विज्ञान सम्बंधी निम्न धारणाएँ प्रस्तुत की हैं:
1. पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है: उस समय यह मान्यता प्रचलित थी कि पृथ्वी स्थिर है और समस्त खगोल इसकी परिक्रमा करता है। आर्यभट ने अपने अध्ययन से पाया कि यह सिद्धान्त गलत है। उन्होंने कहा कि पृथ्वी गोल है, वह अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है, इसी वजह से हमें खगोल घूमता हुआ दिखाई देता है। उन्होंने आर्यभटीय के 4.9वें श्लोक में लिखा है:
अनुलोम-गतिस् नौ-स्थस् पश्यति अचलम् विलोम-गम् यद्-वत्।
अचलानि भानि तद्-वत् सम-पश्चिम-गानि लङ्कायाम्।।
(जैसे चलती हुई नाव में बैठे व्यक्ति को नदी का स्थिर किनारा और अन्य वस्तुएँ गतिमान दिखाई पड़ते हैं, ठीक उसी प्रकार लंका (भूमध्य रेखा) के मनुष्यों को स्थिर तारे गतिमान दिखाई पड़ते हैं।)
आर्यभट्ट ने पृथ्वी केन्द्रित सौर मण्डल का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि आर्यभट ने ग्रहों की कक्षीय अथवा दीर्घवृत्तीय गति का बिलकुल भी उल्लेख नहीं किया है। साथ ही उन्होंने यह भी नहीं कहा कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है।
2. सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण: प्राचीनकाल में सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण को दैत्यों से जोड़ कर देखा जाता था। लोगों का मानना था कि राहु और केतु नामक दैत्य जब सूर्य को खा लेते हैं, तो ग्रहण पड़ता है। आर्यभट ने अपने अध्ययन के द्वारा बताया कि पृथ्वी की छाया जब चंद्रमा पर पड़ती है, तो चंद्रग्रहण होता है। इसी प्रकार चाँद की छाया जब पृथ्वी पर पड़ती है, तो सूर्यग्रहण होता है। उन्होंने आर्यभटीय के चौथे अध्याय के प्रारम्भिक श्लोकों में अपने इस सिद्धाँत को प्रस्तुत किया है। उन्होंने अपने 37वें श्लोक में चंद्रग्रहण का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है:
चन्द्रस् जलम् अर्कस् अग्निस् मृद्-भू-छाया अपि या तमस् तत् हि।
छादयति शशी सूर्यम् शशिनम् महती च भू-छाया।।
3. आकाशीय पिण्डों का घूर्णन काल: आर्यभट्ट ने अपने अनुभव से स्थिर तारों के सापेक्ष पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूर्णन काल बता दिया था। उन्होंने बताया कि पृथ्वी 23 घण्टे 56 मिनट और 4.1 सेकेण्ड में अपना एक चक्कर लगाती है। जबकि पृथ्वी का वास्तविक घूर्णनकाल 23 घण्टे 56 मिनट और 4.091 सेकेण्ड है। यह समय आर्यभट द्वारा निकाले गये मान के लगभग बराबर ही है। इसी प्रकार आर्यभट ने बताया कि 1 वर्ष 365 दिन, 6 घण्टे, 12 मिनट और 30 सेकेण्ड का होता है। यह गणना भी वास्तविक मान से केवल 3 मिनट 20 सेकेण्ड अधिक है। हमें ध्यान में रखना होगा कि आर्यभट ने ये गणनाएँ आज से डेढ़ हजार साल पहले की थीं। जबकि आज की गणनाएँ बड़ी-बड़ी दूरबीनों आदि की सहायता से की जाती हैं। इस प्रकार की गणनाएँ प्राचीन काल में अन्य खगोल शास्त्रियो ने भी की थीं, किन्तु उनमें आर्यभट्ट के आकलन ही शुद्धता के ज्यादा करीब थे।
आर्यभट की विरासत:
आर्यभट की उनके समकालीन तथा परावर्ती खगोलज्ञों ने तीव्र आलोचना की। आर्यभट द्वारा पृथ्वी की घूर्णन गति को निकालने के लिए युग को चार बराबर भागों में विभाजित करने के कारण खगोल वैज्ञानिक ब्रह्मगुप्त ने उनकी तीखी आलोचना की। किन्तु उन्होंने यह माना कि चंद्रमा एवं पृथ्वी की छायाओं के कारण ही ग्रहण होते हैं। अरबी वैज्ञानिक अल-बरूनी ने ब्रह्मगुप्त द्वारा की गयी आलोचना को अवांछित करार किया और उसने उनके विचारों को खूब सराहा।
आर्यभट के प्रमुख शिष्यों में पाण्डुरंगस्वामी, लाटदेव, प्रभाकर एवं निःशंकु के नाम शामिल हैं। लेकिन अगर किसी ने उनके सिद्धाँतों को व्याख्या के द्वारा जनता तक पहुंचाने का सर्वाधिक कार्य किया, तो वे थे भास्कराचार्य। वास्तव में उनके भाष्यों के बिना आर्यभट के सिद्धाँतों को जानना एवं समझना बहुत दूभर कार्य था।
आर्यभट और उनके सिद्धाँतों के आधार पर उनके अनुयायियों द्वारा बनाया गया तिथि गणना पंचाँग भारत में काफी लोकप्रिय रहा है। उनकी गणनाओं के आधार पर सन 1073 में मशहूर अरब वैज्ञानिक उमर खय्याम एवं अन्य खगोलशास्त्रियों ने ‘जलाली’ तिथि पत्र तैयार किया, जोकि आज ईरान और अफगानिस्तान में राष्ट्रीय कैलेण्डर के रूप में प्रयोग में लाया जाता है।
आर्यभट के गणितीय एवं खगोलीय योगदान को दृष्टिगत रखते हुए भारत के प्रथम उपग्रह को उनका नाम दिया गया। यही नहीं चंद्रमा पर एक खड्ड का नामकरण तथा इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा 2009 में खोजे गये एक बैक्टीरिया (बैसिलस आर्यभट) का नामकरण भी उनके नाम पर किया गया है। उनके सम्मान में नैनीताल (उत्तराखण्ड) के निकट आर्यभट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान (Aryabhatta Research Institute of Observational Sciences. ARIES) की स्थापना की गयी है, जिसमें खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमण्डलीय विज्ञान पर अनुसंधान कार्य किये जाते हैं। इससे उनके कार्यों की महत्ता स्वयंसिद्ध हो जाती है।
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आधुनिक भारत के विश्वकर्मा के रूप में प्रतिष्ठित डॉ. मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया देश सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले महान व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं। वे अपने समय के बड़े इंजीनियर, वैज्ञानिक और राष्ट्र निर्माता रहे हैं। उनके महान कार्यों को दृष्टिगत रखते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1955 में ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।
विश्वेश्वरैया का जन्म एवं शिक्षा-दीक्षा:
डॉ. एम. विश्वेश्वरैया का जन्म 15 सितम्बर 1861 को, बंगलौर के कोलर जिले के मुदेनाहल्ली नामक गाँव में हुआ था। इनके पूर्वज आंध्र प्रदेश के ‘मोक्षगुण्डम’ नामक स्थान के रहने वाले थे। इनके पिता का नाम पं0 श्रीनिवास शास्त्री तथा माँ का नाम व्यंकचम्मा था। इनके पिता संस्कृत के विद्वान थे और वे धर्मपरायण ब्राह्मण के रूप में जाने जाते थे। बचपन से ही विश्वेश्वरैया को रामायण, महाभारत ओर पंचतंत्र की प्रेरक कथाएं सुनने को मिलीं, जिससे उन्होंने प्रेरणा ग्रहण की।
विश्वेश्वरैया की प्रारंभिक शिक्षा प्राथमिक विद्यालय में ही हुई। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे इसलिए हमेशा अपने अध्यापकों के प्रिय रहे। लेकिन अभी उन्होंने जीवन के 14 वसंत ही देखे थे कि उनके पिता की मृत्यु हो गयी। आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे अपने मामा रमैया के पास बंगलौर चले गये। मामा की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। लेकिन विश्वेश्वरैया की इच्छा शक्ति देखकर उन्होंने विश्वेश्वरैया को मैसूर राज्य के एक उच्चाधिकारी के घर पर बच्चों का ट्यूशन दिलवा दिया। उस अधिकारी का घर विश्वेश्वरैया के मामा के घर से लगभग 15 किलोमीटर दूर था। विश्वेश्वरैया प्रतिदिन पैदल ही इस दूरी को तय करते और बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर लौट आते।
पढ़ाई के लिए ट्यूशन की व्यवस्था हो जाने के बाद विश्वेश्वरैया ने सन 1875 में बंगलौर के सेन्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया। सन 1880 ई0 में वहाँ से उन्होंने बी.ए. की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। उनकी इच्छा थी कि वे आगे इंजीनियरिंग की पढ़ाई करें, पर आर्थिक स्थिति उन्हें इसकी अनुमति नहीं दे रही थी। सेन्ट्रल कॉलेज के प्रिंसिपल, जोकि एक अंग्रेज थे, विश्वेश्वरैया की योग्यता से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने विश्वेश्वरैया की मुलाकात मैसूर के तत्कालीन दीवान श्री रंगाचारलू से करवाई। रंगाचारलू ने विश्वेश्वरैया की लगन को देखकर उनके लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था कर दी। इसके बाद विश्वेश्वरैया ने पूना के ‘साइंस कॉलेज’ में प्रवेश लिया। उन्होंने ‘सिविल इंजीनियरिंग’ श्रेणी में मुम्बई विश्वविद्यालय के समस्त कॉलेजों के छात्रों के बीच सर्वोच्च अंक प्राप्त करते हुए 1883 में इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की।
विश्वेश्वरैया का कार्यक्षेत्र:
इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त करते ही विश्वेश्वरैया को बम्बई के लोक निर्माण विभाग में सहायक अभियन्ता के रूप में नौकरी मिल गयी। उस समय भारत अंग्रेजों के अधीन था। अंग्रेज अधिकारी उच्च पदों पर आमतौर से अंग्रेजों को ही नियुक्त करते थे। विश्वेश्वरैया ने इस पद पर काम करते हुए शीघ्र ही अंग्रेज़ इंजीनियरों से अपना लोहा मनवा लिया। प्रारम्भिक दौर में विश्वेश्वरैया ने प्राकृतिक जल स्रोत्रों से इकट्ठा होने वाले पानी को घरों तक पहुँचाने के लिए जल-आपूर्ति और घरों के गंदे पानी को निकालने के लिए नाली-नालों की समुचित व्यवस्था की। उन्होंने खानदेश जिले की एक नहर में पाइप-साइफन के कार्य को भलीभाँति सम्पन्न करके भी अपनी धाक जमाई।
विश्वेश्वरैया के जीवन में सबसे बड़ी चुनौती सन 1894-95 में आई, जब उन्हें सिन्ध के सक्खर क्षेत्र में पीने के पानी की परियोजना सौंपी गयी। उन्होंने इस चुनौती को सहर्ष स्वीकार किया। उन्होंने वहाँ पर बाँध बनवाने की योजना बनवाई। जब उस योजना को प्रारम्भ करने का समय आया, तो विश्वेश्वरैया यह देख कर दु:खी हो गये कि वहाँ का पानी पीने लायक ही नहीं था। इसलिए उन्होंने सबसे पहले उस पानी को स्वच्छ बनाने का फैसला किया। पानी को साफ करने की तमाम तकनीकों का अध्ययन करने के बाद विश्वेश्वरैया इस नतीजे पर पहुँचे कि इस नदी के पानी को साफ करने के लिए नदी की रेत का प्रयोग सबसे आसान रहेगा। इसके लिए उन्होंने नदी के तल में एक गहरा कुँआ बनाया। उस कुँए में रेत की कई पर्तें बिछाई गयीं। इस प्रकार रेत की उन पर्तों से गुजरने के बाद नदी का पानी स्वच्छ हो गया। इस परियोजना के सफलतापूर्वक सम्पन्न होने के बाद विश्वेश्वरैया की ख्याति चारों ओर फैल गयी और वे अंग्रेज अधिकारियों के मध्य सम्मान की दृष्टि से देखे जाने लगे।
विश्वेश्वरैया ने अपनी मौलिक सोच के द्वारा बाढ़ के पानी को नियंत्रित करने के लिए खड़गवासला बांध पर स्वचालित जलद्वारों का प्रयोग किया। इनकी खासियत यह थी कि बाँध में लगे जलद्वार पानी को तब तक रोक कर रखते थे, जब तक वह पिछली बाढ़ की ऊँचाई के स्तर तक नहीं पहुँच जाता था। उसके बाद जैसे ही बाँध का पानी उससे ऊपर की ओर बढ़ता जलद्वार अपने आप ही खुल जाते। और जैसे ही बाँध का पानी उसके निर्धारित स्तर तक पहुँचता बांध के जलद्वार स्वत: ही बंद हो जाते।
विश्वेश्वरैया ने सिर्फ पीने के पानी की समस्या का ही निराकरण नहीं किया, उन्होंने खेतों की सिंचाई के लिए उत्तम प्रबंध किये। इसके लिए उन्होंने बाँध से नहरें निकालीं और उनके द्वारा खेतों तक पानी की व्यवस्था की। विश्वेश्वरैया ने अपने इन कार्यों के द्वारा पूना, बैंगलोर, मैसूर, बड़ौदा, कराची, हैदराबाद, कोल्हापुर, सूरत, नासिक, नागपुर, बीजापुर, धारवाड़, ग्वालियर, इंदौर सहित अनेक नगरों को जल संकट से पूर्णत: मुक्ति प्रदान कर दी। यह वह दौर था, जब आजादी के लिए आंदोलन अपने पूरे उफान पर था। इस आंदोलन को गति देने के लिए गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक जैसे स्वतंत्रता सेनानी सरकारी पदों पर विराजमान भारतीयों को इस आंदोलन से जोड़ने के लिए विशेषरूप से प्रयासरत थे। इन तमाम नेताओं के सम्पर्क में आने के बाद विश्वेश्वरैया ने भारतीय जनमानस तक आम सुविधाएँ पहुँचाने का निश्चय लिया और उसके लिए दिन-रात एक कर दिया।
विश्वेश्वरैया के अतुलनीय कार्य:
अपने परिश्रम और लगन के बल पर विश्वेश्वरैया लोक निर्माण विभाग में तरक्की की सीढि़याँ चढ़ते गये। वे 1904 में विभाग के सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर पर नियुक्त हुए। उन दिनों में विभाग के प्रमुख का पद अंग्रेजों के लिए आरक्षित था। विश्वेश्वरैया ने इसका विरोध करते हुए 1908 में अपने पद से स्तीफा दे दिया। अंग्रेज सरकार उन जैसे योग्य व्यक्ति को खोना नहीं चाहती थी, इसलिए उसने विश्वेश्वरैया से इस फैसले पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया। पर विश्वेश्वरैया अपने निश्चय से टस से मस नहीं हुए। उस समय विभाग की न्यूनतम 25 वर्ष की सेवा के उपरांत ही पेंशन का प्रावधान था। हालाँकि विश्वेश्वरैया की 25 वर्ष की सेवाएँ नहीं हुई थीं, इसके बावजूद अंग्रेज सरकार ने इस नियम को बदलते हुए उन्हें पेंशन प्रदान की।
अपनी नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद विश्वेश्वरैया ने विदेशों की यात्राएँ की और अनेक इंजीनियरिंग संस्थानों में जाकर वहाँ से अनुभव अर्जित करने का फैसला किया। उन दिनों बरसात के दिनों में सारे देश में बाढ़ की विभीषिका व्याप्त हो जाती थी। हैदराबाद के निजाम भी इससे बहुत त्रस्त थे। इसलिए विश्वेश्वरैया के विदेश प्रवेश से लौटते ही वहाँ के निजाम ने उन्हें इस समस्या से निजात दिलाने की जिम्मेदारी सौंप दी। विश्वेश्वरैया लगभग एक वर्ष तक हैदराबाद में रहे। इस दौरान उन्होंने वहाँ पर अनेक बाँधों और नहरों का निर्माण कराया, जिससे वहाँ की बाढ़ की समस्या काफी हद तक समाप्त हो गयी। उसी दौरान मैसूर राज्य के तत्कालीन दीवान ने विश्वेश्वरैया से सम्पर्क किया और उनसे मैसूर राज्य के प्रमुख इंजीनियर की जिम्मेदारी संभालने का आग्रह किया। चूँकि विश्वेश्वरैया की शिक्षा में मैसूर राज्य की छात्रवृत्ति का बड़ा योगदान था, इसलिए वे उनका आग्रह टाल न सके और 1909 में हैदराबाद से मैसूर आ गये।
मैसूर राज्य की कावेरी नदी अपनी बाढ़ के लिए दूर-दूर तक कुख्यात थी। उसकी बाढ़ के कारण प्रतिवर्ष सैकड़ों गाँव तबाह हो जाते थे। कावेरी पर बाँध बनाने के लिए काफी समय से प्रयत्न किये जा रहे थे। लेकिन अन्यान्य कारणों से यह कार्य पूर्ण न हो सका था। विश्वेश्वरैया ने जब इस योजना को अपने हाथ में लिया, तो उन्होंने मूल योजना में काफी खोट नजर आई। उन्होंने मैसूर को बाढ़ की विभीषिका से मुक्ति दिलाने के लिए कावेरी नदी का वृहद सर्वेक्षण किया और तब जाकर एक विस्तृत योजना तैयार की।
विश्वेश्वरैया ने कावेरी नदी पर बाँध बनाने की जो योजना बनाई थी, उसमें लगभग 2 करोड़ 53 लाख रूपये खर्च होने का अनुमान था। 1909 में यह एक बड़ी राशि थी। लेकिन यह विश्वेश्वरैया के व्यक्तित्व का ही प्रताप था कि मैसूर सरकार उनकी इस योजना से सहमत हो गयी और योजना को हरी झण्डी दे दी।
विश्वेश्वरैया ने अपनी सूझबूझ और लगन का परिचय देते हुए कावेरी नदी पर कृष्णराज सागर बाँध का निर्माण कराया। लगभग 20 वर्ग मील में फैला यह बाँध 130 फिट ऊँचा और 8600 फिट लम्बा था। यह विशाल बाँध 1932 में बनकर पूरा हुआ, जो उस समय भारत का सबसे बड़ा बाँध था। बाँध के पानी को नियंत्रित करने के लिए उससे अनेक नहरें एवं उपनहरें भी निकाली गयीं, जिन्हें ‘विश्वेश्वरैया चैनल’नाम दिया गया। इस बाँध में 48,000 मिलियन घन फिट पानी एकत्रित किया जा सकता था, जिससे 1,50,000 एकड़ कृषि भूमि की सिंचाई की जा सकती थी और 60,00 किलोवाट बिजली बनाई जा सकती थी। कृष्णराज सागर बाँध वास्तव में एक बहुउद्देशीय परियोजना थी, जिसके कारण मैसूर राज्य की कायापलट हो गयी। वहाँ पर अनेक उद्योग-धंधे विकसित हुए, जिसमें भारत की विशालतम मैसूर शुगर मिल भी शामिल है।
विश्वेश्वरैया की उपलब्धियाँ:
सन 1909 में विश्वेश्वरैया के चीफ इंजीनियर बनने के तीन साल बाद ही मैसूर राज्य के तत्कालीन दीवान (प्रधानमंत्री) की मृत्यु हो गयी। मैसूर के महाराजा उस समय तक डॉ0 विश्वेश्वरैया के गुणों से भलीभाँति परिचित हो चुके थे। इसलिए उन्होंने विश्वेश्वरैया को मैसूर का नया दीवान नियुक्त कर दिया। इस पद पर विश्वेश्वरैया लगभग 6 वर्ष तक रहे। दीवान बनने के साथ ही विश्वेश्वरैया ने राज्य के समग्र विकास पर ध्यान देना शुरू किया। उन्होंने अपने कार्यकाल में शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर बल दिया और प्रदेश में अनके तकनीकी संस्थानों की नींव रखी।
विश्वेश्वरैया ने 1913 में स्टेट बैंक ऑफ मैसूर की स्थापना की। व्यापार तक जनपरिवहन को सुचारू बनाने के लिए उन्होंने राज्य में अनेक महत्वपूर्ण स्थानों पर रेलवे लाइन बनवाईं। इसके साथ ही साथ उन्होंने इंजीनियरिंग कॉलेज, बंगलौर (1916) एवं मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना की। सन 1918 में ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्होंने पॉवर स्टेशन की भी स्थापना की। इसके साथ ही साथ उन्होंने सामाजिक विकास के लिए अनेक योजनाओं को संचालित किया, प्रेस की स्वतंत्रता को लागू करवाया और औद्योगीकरण पर बल दिया।
विश्वेश्वरैया के अन्य योगदान:
सन 1919 में महाराजा से वैचारिक भिन्नता के कारण विश्वेश्वरैया ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद वे कई महत्वपूर्ण समितियों के अध्यक्ष एवं सदस्य रहे। उन्होंने सिंचाई आयोग के सदस्य के रूप में अनेक योजनाओं को अमलीजामा पहनाया। बम्बई सरकार की औद्योगिक शिक्षा समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने अपनी संवाएँ प्रदान कीं। वे भारत सरकार द्वारा नियुक्त अर्थ जाँच समिति के भी अध्यक्ष रहे। उन्होंने बम्बई कार्पोरेशन में भी एक वर्ष परामर्शदाता के रूप में अपनी सेवाएँ प्रदान कीं।
नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद विश्वेश्वरैया ने स्वतंत्र चिंतन प्रारम्भ किया। उन्होंने अपनी आर्थिक दृष्टि को व्याख्यायित करते हुए 'भारत का पुनर्निर्माण' (Reconstructing India, 1920) एवं 'भारत के लिये नियोजित अर्थ व्यवस्था' (Planned Economy for India, 1934), नामक पुस्तकों की रचना की। इसके अतिरिक्त 1951 में ‘मेमोरीज ऑफ माई वर्किंग लाइफ’ (Memoirs of My Working Life) नामक एक अन्य पुस्तक लिखी। यह पुस्तक अत्यंत लोकप्रिय हुई। सन 1957 में इस पुस्तक का लघु संस्करण ‘ब्रीफ मेमोरीज ऑफ माई वर्किंग लाइफ’ (Brief Memoirs of My working Life) भी प्रकाशित हुआ।
विश्वेश्वरैया सन 1921 में आजादी के आंदोलन में सम्मिलित हो गये। उन्होंने वाइसराय से विचार-विमर्श किया और स्वराज की माँग पर विचार करने के लिए ‘गोलमेज सम्मेलन’ का समर्थन किया। इसके साथ ही साथ उन्होंने देश की अनेक विकास योजनाओं में भी उत्साहपूर्वक भाग लिया। उन्होंने बंगलौर में ‘हिन्दुस्तान हवाई जहाज संयत्र’ एवं ‘विजाग पोत-कारखाना’ प्रारम्भ करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अतिरिक्त उन्होंने भ्रद्रावती इस्पात योजना को परवान चढ़ने के लिए भी काफी श्रम किया।
विश्वेश्वरैया सतत कार्य करने वाले व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने 100 वर्ष से अधिक का जीवन पाया और जीवन की अन्तिम घड़ी तक वे कभी खाली नहीं बैठे। 14 अप्रैल सन 1962 को उनका देहान्त हुआ।
विश्वेश्वरैया के पुरस्कार एवं सम्मान:
विश्वेश्वरैया धुन के पक्के, लगनशील और ईमानदार इंजीनियर के रूप में जाने जाते हैं। वे कठिन परिश्रम और ज्ञान के पुजारी थे। उन्होंने अपने कार्यों के द्वारा समाज में जो प्रतिष्ठा प्राप्त की, वह बिरले लोगों को ही नसीब होती है। उनकी कार्यनिष्ठा एवं योग्यता से प्रसन्न होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि से विभूषित किया।
डॉ0 विश्वेश्वरैया के योगदान को दृष्टिगत रखते हुए उन्हें जादवपुर विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय एवं प्रयाग विश्वविद्याय ने डी.एस.सी. की मानद उपाधि प्रदान की। इसके अतिरिक्त काशी विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट तथा मैसूर विश्वविद्यालय एवं बम्बई विश्वविद्यालय ने उन्हें एल.एल.डी की उपाधियों से सम्मानित किया। उनकी राष्ट्रसेवा को दृष्टिगत रखते हुए भारत सरकार ने उन्हें सन 1955 में भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया। 1961 में उनके 100 वर्ष पूरे करने के उपलक्ष्य में देश ने उनका शताब्दी समारोह मनाया। इस अवसर पर भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया।
डॉ0 मोक्षगुण्डम् विश्वेश्वरैया आज हमारे बीच नहीं हैं। पर उन्होंने भारत निर्माण के लिए इतने कार्य किये हैं, कि जब तक यह संसार रहेगा, वे ‘आधुनिक भारत के विश्वकर्मा’ के रूप में याद किये जाते रहेंगे।

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(04 फरवरी, 2014 को भारत के राष्ट्रपति डॉ. राव को 'भारत रत्न' से सम्मानित करते हुए) |
भारत के
सी वी रमन और पूर्व राष्ट्रपति
ए पी जे अब्दुल कलाम के बाद तीसरे वैज्ञानिक हैं, जिनके नाम के साथ यह सम्मान जुड़ रहा है।
मशहूर रसायन विज्ञानी प्रोफेसर सीएनआर राव देश के सबसे बड़े सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किए जाएंगे। सॉलिड स्टेट और मैटेरियल केमिस्ट्री के विशेषज्ञ प्रोफेसर राव
जन्म एवं शिक्षा:
डॉ0 चिंतामणि नागेश रामचंद्र राव (Dr. Chintamani Nagesh Ramchandra Rao) अपने माता-पिता की इकलौती संतान हैं। उनका जन्म 30 जून 1943 को बंगलुरू के एक कन्नड़ परिवार में हुआ था। उनकी बचपन से ही विज्ञान में गहरी रूचि थी। वे नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक सी वी रमन से बहुत प्रभावित थे। अपनी पढाई के दौरान उन्होंने अपने अध्यापक की मदद से रमन से मिलने में कामयाब हुए। वे उनकी प्रयोगशाला देखकर बहुत प्रभावित हुए और आगे चलकर विज्ञान के क्षेत्र में कुछ करके दिखाने की प्रेरणा प्राप्त की।
राव ने 1951 में मैसूर विश्वविद्यालय Mysore University से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। उसके बाद उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) में एम.एस-सी. में प्रवेश लिया और सन 1953 में उसे शानदार तरीके से उत्तीर्ण किया। उसके बाद उन्होंने यू.एस.ए. के पुरड्यू विश्वविद्यालय (Purdue University) में पी-एच0डी0 में प्रवेश लिया। वहां पर उन्होंने नोबेल विजेता एच.सी. ब्राउन के मार्गदर्शन में स्पेक्ट्रोस्कोपी में शोध कार्य किया, जिसके लिए उन्हें 1958 में पी-एच.डी. की डिग्री प्रदान की गयी।
विज्ञान सेवा:
डॉ0 राव ने अपनी शोध यात्रा 1963 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी, कानपुर (Indian Institute of Technology Kanpur) से फैकल्टी मेम्बर के रूप में शुरू की। सन 1984 में वे इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बंगलुरू (Indian Institute of Science) के निदेशक चुने गये। वहां पर उन्होंने 1994 तक अपनी सेवाएं दीं।
डॉ0 राव का शोधकार्य 'सॉलिड स्टेट केमिस्ट्री' (Solid State Chemistry) से सम्बंधित है। उन्होंने स्पेक्ट्रम विज्ञान के उन्नत उपकरणों के माध्यम से ठोस पदार्थों की भीतरी संरचनाओं पर कार्य किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने सूक्ष्मदर्शी स्तर पर ठोसों में होने वाली प्रक्रियाओं को समझा और उनसे सम्बंधित रिसर्च पेपर लिखे। उन्होंने पदार्थ के गुणों और उनकी आणविक संरचना के बीच बुनियादी समझ विकसित करने में अहम भूमिका निभाई है।
डॉ0 राव ने अपने शोध कार्यों के लिए इंस्टीटयूट में अपनी प्रयोगशाला बनाई और अपने ज्यादातर शोध कार्य उसी में सम्पन्न किये। उनका मानना है कि ''वास्तव में विज्ञान का अध्ययन और परीक्षण उसके परिणामों से अधिक रोचक है।''
श्री राव वर्तमान में भारत के प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार परिषद (Scientific Advisory Council) के प्रमुख है। इसके साथ ही साथ वे इंटरनेशनल सेंटर फॉर मैटीरियल्स साइंस (International Centre for Materials Science (ICMS) के निदेशक भी हैं। वे पुरड्यू विश्वविद्यालय (Purdue University), आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय (Oxford University), कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय (Cambridge University) और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (California University) के विजिटिंग प्रोफेसर रह चुके हैं। इसके अतिरिक्त वे जवाहर लाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ट साइंटिफिक रिसर्च (Jawaharlal Nehru Centre for Advanced Scientific Research) के संस्थापक निदेशक भी रहे हैं।
पुरस्कार/सम्मान:
डॉ0 राव न सिर्फ केवल प्रतिष्ठित रसायनशास्त्री हैं बल्कि उन्होंने देश की वैज्ञानिक नीतियों के निर्धारण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वे देश के मंगल अभियान से भी सम्बद्ध रहे हैं। उन्होंने लगभग 1500 शोध पत्र और 45 किताबें लिखी हैं।
डॉ0 रा0 की योग्यता को देखते हुए उन्हें 1964 में इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज का सदस्य नामित किया गया। सन 1967 में उन्हें फैराडे सोसाइटी ऑफ इंग्लैंड से मार्लो मेडल प्राप्त हुआ। सन 1968 में प्रो0 राव को भटनागर अवार्ड से सम्मानित किया गया।
डॉ0 राव को सन 1988 में जवाहरलाल नेहरू अवार्ड प्राप्त हुआ। वे सन 1999 में इंडियन साइंस कांग्रेस के शताब्दी पुरस्कार से सम्मानित किये गये। वर्ष 2000 में उन्हें रॉयल सोसायटी (Royal Society) ने 'ह्यूग्स मेडल' (Hughes Medal) देकर सम्मानित किया। वे भारत सरकार द्वारा प्रारम्भ किये गये'इंडियन साइंस अवार्ड' (India Science Award) के पहले विजेता बने। यह पुरस्कार उन्हें वर्ष 2004 में प्राप्त हुआ।
इसके अतिरिक्त डॉ0 राव को वर्ष 2005 में डैन डेविड फाउंडेशन (Dan David Foundation), तेल अवीव विश्वविद्यालय (Tel Aviv University) से 'डैन डेविड प्राइज' (Dan David Prize), फ्रांस सरकार द्वारा 'नाइट ऑफ द लीगन ऑफ ऑनर' सम्मान (Knight of the Legion of Honour), वर्ष 2008 में अब्दुस सलाम मेडल (Abdus Salam Medal), वर्ष 2013 में चाइनीस एकेडमी ऑफ साइंस (Chinese Academy of Sciences-CAS) का सर्वश्रेष्ठ साइंटिस्ट अवार्ड और आईआईटी, पटना (IIT Patna) से 'डिस्टिंग्युस्ड एकेडमीसियन अवार्ड' (Distinguished academician awar) प्राप्त हो चुके हैं।
उनकी योग्यताओं और देशसेवा के लिए उन्हें भारत सरकार ने सन 1974 में पदमश्री और सन 1985 में पदमविभूषण से भी सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त कर्नाटक सरकार भी उन्हें 'कर्नाटक रत्न' की उपाधि प्रदान कर चुकी है।
डॉ0 राव देश-विदेश की दो दर्जन से अधिक शैक्षिक संस्थाओं/विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर रह चुके हैं। उनकी असाधारण योग्तयता को दृष्टिगत रखते हुए उन्हें मैसूर विश्वविद्यालय (Mysore University) ने सन 1961 में तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय (Calcutta University) in वर्ष 2004 में 'डॉक्टर ऑफ साइंस' की मानद उपाधि से सम्मानित किया। इसके साथ ही उन्हें देश-विदेश के 60 विश्वविद्यालयों/ शैक्षिक संस्थानों ने डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की है, जिनमें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय (Oxford University), अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय (Aligarh Muslim University) आईआईटी खडगपुर (IIT Kharagpur) के नाम प्रमुख हैं।
देश-विदेश की 50 से अधिक वैज्ञानिक संस्थाओं से मानद सदस्य डॉ0 राव एक देशप्रेमी वैज्ञानिक हैं। उन्हें विदेश के अनेक संस्थानों ने बड़े-बड़े प्रलोभन दिये, पर उन्होंने उन सबको ठुकराकर भारत में ही रहते हुए देश सेवा का व्रत लिया। वे वास्तव में भारत के रत्न हैं। उनको 'भारत रत्न' सम्मान प्रदान किये जाने की घोषणा से हर भारतवासी अह्लादित है।
